महात्मा गांधी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था

                         महात्मा गांधी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था



स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के बाद से ही महात्मा गांधी गाँवों की दशा को लेकर बेहद चिंतित रहते थे और गाँवों के प्रति नया दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर ज़ोर देते थे। दरअसल अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों से गाँवों में रहने वाले लोगों में बेगारी बढ़ रही थी,छोटे उद्योग-धंधे चौपट हो गए थे। शहरों के लोगों में विदेशी चीजों को खरीदने और उनका उपयोग करने की प्रवृत्ति बढ़ गई थी और इसका सीधा फायदा ब्रिटिश सरकार और ब्रिटेन की जनता को मिल रहा था। भारत से कच्चा माल ब्रिटेन जाता था और वहाँ से वह पक्का बनकर भारतीय लोगों को महंगे दामों पर बेचा जाता था।


ऐसे समय में गांधी भारतीय जनता में जागरूकता लाने के लिए प्रयास करने लगे। गांधी ने चरखा को स्वदेशी आंदोलन का हथियार बनाया। उन्होंने नगर वासियों से अनुरोध किया कि वे अपने दैनिक जीवन में स्वदेशी उत्पादों का ही उपयोग करे। घर साफ करने के लिए प्लास्टिक ब्रश नहीं झाड़ू का इस्तेमाल करें। टूथ ब्रश की जगह नीम या बबूल के दातौन का इस्तेमाल हो सकता है। कारखाने के पालिश किए हुए चावल के बदले हाथकुटे चावल का, कारखाने की चीनी के बदले गुड़ का उपयोग हो सकता है।


गांधी गाँवों की आर्थिक प्रगति के जरिए सामाजिक और आर्थिक असमानता भी दूर करना चाहते थे। उनके अस्पृश्यता निवारण के अभियान का एक आर्थिक पहलू भी था। वे गरीब और वंचित लोगों की आर्थिक प्रगति से सामाजिक बुराइयों को कमजोर होता देखते थे। गांधी कहते थे कि गाँव से वस्तुएँ खरीदने की आदत हमको डालना होगी जिससे ग्रामीण जन मजबूत होगा,उन्हें मजदूरी और मुनाफा दोनों ही मिलेगा। गाँव की जनता की आर्थिक प्रगति से राष्ट्रीय समस्याएँ कम होगी और स्वतंत्रता आंदोलन को भी मजबूती मिलेगी।


गांधी ने नगर वासियों को गाँवों का महत्व समझाते हुए अपनी चिंता इन शब्दों मे व्यक्त की 'नगर वालों के लिए गाँव अछूत है। नगर में रहने वाला गाँव को जानता भी नहीं। वह वहाँ रहना भी नहीं चाहता। अगर कभी गाँव में रहना भी पड़ जाए तो वह शहर की सारी सुख-सुविधाएँ जमा करके उन्हें शहर का रूप देने की कोशिश करता है।'


गांधी शहर द्वारा गाँवों के शोषण को हिंसा का ही रूप बताते थे। गांधी चाहते थे कि नगर से लोग गाँव में आकर रहे और गाँव की अर्थ-व्यवस्था सुधारने में योगदान दे। इसके लिए वे स्वयं वर्धा से थोड़ी दूर एक छोटे और पिछड़े गाँव सेगांव में जाकर बस गए। इस गाँव में गांधी के साथ भारत और बाहर के लोग भी आकर रहने लगे। ये लोग पूर्णतः स्वदेशी जीवन शैली और पद्धति से रहते थे। अधिकांश प्राकृतिक चीजों का ही इस्तेमाल करते थे। बाद में सेगांव का नाम ही बदलकर सेवाग्राम हो गया।


गांधी कारखानों को मानव विकास के लिए घातक बताते थे, उन्होंने कारखानों के वातावरण को भी अहिंसा विरोधी बताया। गांधी के विचारों में भारत की सभ्यता और संस्कृति का विकास गाँवों में हुआ। वे कहा करते थे कि गाँवों की आत्म-निर्भरता से अहिंसक समाज मजबूत होता है। इसीलिए अहिंसामूलक होने के पहले ग्राम-मूलक होना आवश्यक है।


गांधी ने राष्ट्रीय आंदोलन के साथ सामाजिक और आर्थिक प्रगति के कार्यक्रम चलाये। उनकी योजना में ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था की मजबूती ही प्रमुख रही। सेवाग्राम अखिल भारतीय चरखा सेवा संघ का बड़ा केंद्र बन गया। ग्रामीण जनता के प्रशिक्षण के लिए अनेक केंद्र खोले गए। अंग्रेजी शिक्षा से दूर स्वदेशी भाषाओं पर आधारित शिक्षा संस्थाएँ खोली गई। गौ-सेवा को ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था का आधार बताया गया और गौ-सेवा संघ स्थापित किया गया। इसी प्रकार वहाँ हिंदुस्तानी तालीमी संघ, महिला आश्रम और तेल घानी केंद्र जैसी कई संस्थाएँ काम करने लगी। गांधी के आग्रह पर बाद में कांग्रेस के सालाना अधिवेशन भी हरिपुरा, त्रिपुरी जैसे गाँवों में आयोजित किए गए।


गाँवों में पंचायती राज की स्थापना और उन्हें मजबूती देने की गांधी की योजना के पीछे भी ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था ही रही। वे गाँव को गणतन्त्र मानते थे। जहाँ पर लोगों की एक-दूसरे पर पारस्परिक निर्भरता हो। ग्रामीण आपस में मिलकर विकास की योजनाएं बनाये। शिक्षा संस्थान और विकास की दिशा में निर्माण करें,उनका संरक्षण भी स्वयं ही करें और आपसी झगड़ों का निराकरण भी पंचायतें ही करें।


ब्रिटिश शासन की स्थापना भारत का आर्थिक दोहन करने के लिए ही की गई थी। भारत के लोगों का आर्थिक शोषण बड़े पैमाने पर किया जा रहा था और भारत की अर्थ-व्यवस्था को अंग्रेजों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से नष्ट किया जा रहा था। ऐसे समय में गांधी ने चरखा और स्वदेशी आंदोलन के बूते स्वतन्त्रता आंदोलन को जन-आंदोलन बना दिया। चंपारण में नील की खेती का विरोध कर उन्होंने ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था के महत्व को पुख्ता किया था। चंपारण आंदोलन से ग्रामीण जनता और किसान बड़ी संख्या में गांधी के साथ हो गए। यहीं से राष्ट्रीय आंदोलन में आम भारतीय जन-मानस की भागीदारी बढ़ी। बाद में असहयोग आंदोलन से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक स्वदेश और पंचायती राज को मजबूत करने के संदेश मिले।


गांधी के ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को मजबूत करने के सपने को साकार करने के लिए ही देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने देश में पंचायती राज की नींव रखी। बाद में देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी ने उसे और मजबूती प्रदान कर जन-जन के हितों और भागीदारी से जोड़ दिया। मध्यप्रदेश को पंचायती राज को जन-जन से जोड़ने का गौरव सबसे पहले मिला। मध्यप्रदेश में सबसे पहले 73 वें संविधान संशोधन को लागू करके तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार ने ग्रामीण विकास की नई इबारत लिख दी।


मध्यप्रदेश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के 150वें जन्म-वर्ष को समारोहपूर्वक मना रहा है। मुख्यमंत्री श्री कमल नाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार प्रदेश में राष्ट्रपिता की इच्छा के अनुरूप ग्रामीण विकास को दिशा दे रही है। कुटीर और ग्रामोद्योगों के विकास, खाद्य प्र-संस्करण, उद्योगों को पंचायत स्तर तक ले जाने, सुशासन से सुराज, राइट टू वॉटर जैसे अनेकानेक सुनियोजित प्रयास, प्रदेश में बड़े पैमाने पर गौ-शालाओं की स्थापना, गौवंश के संरक्षण में जन-भागीदारी भी इसी दिशा में सरकार के कदम है। मुझे विश्वास है कि हम महात्मा गांधी के सपनों के देश, प्रदेश के निर्माण में वर्तमान परिस्थितियों में जरूरी बदलाव कर सफल होंगे


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